BHIC 134- भारत का इतिहास ( Bharat ka itihaas ) 1757- 1950 || || History Most important question answer

bharat ka itihaas- bhic- 134- history most important question answer.

  ( परिचय )

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1- अठारहवीं शताब्दी की बहस पर चर्चा कीजिए । क्या आप सोचते हैं कि अठारहवीं शताब्दी केवल राजनीतिक अव्यवस्था और अराजकता के बारे में थी ?

उत्तर:- अठारहवीं शताब्दी में बहुत से तीव्रगामी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए और हर परिवर्तन के अलग कारण और व्याख्याएँ थी।

भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण

अठारहवीं शताब्दी में जो बदलाव हुए उसे लेकर इतिहासकरो में अलग अलग मत और वाद-विवाद है जिसे हम दो भागो में विभाजित करते है

1- पहला 1750 तक

साम्राज्य केन्द्रित :-

  • कुछ इतिहासकार का मानना है की अठारहवीं शताब्दी से पहले मुगल साम्राज्य की निति जो उसकी संस्थाओं की केन्द्रीयता और समाज और अर्थव्यवस्था पर आधारित थी ।
  • यही निति पतन का कारण बनी और इस पतन के कारण देश में राजनीतिक अव्यवस्था और अराजकता आ गई ।
  • आधुनिक व्याख्याओं में इसे पतन न कह कर संरचना का हास कहा गया।

क्षेत्र केन्द्रित :-

  • कुछ इतिहासकार क्षेत्र केन्द्रित विचार को आधार बनाते हुए सामाजिक समूहों को महत्वपूर्ण मानते है।
  • इन क्षेत्रों ने अपने हितों की पूर्ति के लिए राजनीतिक और आर्थिक प्रक्षेप पथ को बदल दिया।
  • एक तरफ जहा मुगल क्षेत्रीय शासन को बदल दिया गया जिसके कारण बंगाल, अवध और हैदराबाद स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हुई।
  • वाही दूसरी तरफ मराठा और सिख जैसी राजनीतिक शक्तियों का उद्भव हुआ जो स्वतंत्र इकाई के रूप में उभरे।
  • परन्तु ये जो राजनीतिक तन्त्र बना ये मुगल प्रशासनिक पद्धतियों पार्ट ही बनया गया था।
  • मुगल कुलीन वर्ग इस क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य में अधिक शक्तिसाली बनकर उभरा जिसके पास राजस्व को इजारे (ठेके पर) लेने का मौका मिला जो बाद मे इनकी पुश्तैनी जायदाद बन गए व्यापारिक विकास से ये और मजबूत हुए।

कुछ इतिहासकार साम्राज्य के पतन के बाद उभरने वाले क्षेत्रीय राज्यों को महत्त्व नहीं देते है उनका मानना है किन की इन राज्यों का विस्तार  जितना मुगल सूबे था उससे आगे नहीं बढ़ा और जाट, सिख और मराठाओं के विरोधी आन्दोलनों को ये लुटेरों के दलों से ज्यादा मान्यता नहीं देते।

2- दूसरा 1750 के बाद

  • यूरोपवादी विचारक विस्तारवादी के प्रभुत्व को प्रमुखता देते हैं जिसने भारत में अराजकता और अव्यवस्था से घिरे हुए भारत को हराया।
  • भारत के राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी इतिहासकारों का मानना है की भारत के आर्थिक पिछड़ेपन के कारणों ने उपनिवेशवाद को बढ़ावा दिया।
  • राष्ट्रवादी विचारधारा से सम्बंधित इतिहासकारों ने 18वी शताब्दी में भारत में फैली अराजकता ने भारत को विदेशी शक्तियो के उपनिवेश में ला दिया।
  • कुछ इतिहासकारों तर्क है कि भारतीय समाज की परिस्थितियों ने अंग्रेजी शासन को बढ़ावा दिया साथ ही महानगरीय स्वार्थों ने अंग्रेजी शासन के निर्धारण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
  • भारतवादी दृष्टिकोण रखने वाले आर्थिक रूप से पचिमिकरण के मत की जगह यह मानते है की भारत की व्यापारिक और सैन्य कुशलता बनी रही बस कम्पनी ने इसे अपनी सुविधा और लाभ के प्रयोग किया चाहे वो शासन प्रणाली के आदर्शो हो, कृषि व्यापारिक प्रबंध और मानव संसाधन।

अत :- भारतवादी दृष्टिकोण के मतानुसार, 18वी शताब्दी किसी अवरुद्ध नहीं बल्कि यह एक गहरी निरन्तरता थी, जिसमें पहले से चली आ रही संस्थाएँ और संचनाएँ बनी रहीं और व्यावसायिक प्रक्रियाओं का निरंतर विस्तार होता रहा।

2- 1857 की क्रान्ति के क्या कारण थे? चर्चा कीजिए।

उत्तर :- 1857 का विद्रोह ब्रिटिश शासन के क्रूरतापूर्वक शासन से मुक्ति के लिए भारतीय जनता का प्रथम संघर्ष था जिसने ब्रिटिश शासन की जड़ो को हिला कर रख दिया था। यह विद्रोह जो सैनिक विद्रोह के रूप में शुरू हुआ था इसने भारत के विस्तृत क्षेत्र की जनता एवं कृषक वर्ग को भी शामिल कर लिया कुछ पर्यवेक्षकों ने इसे राष्ट्रीय विद्रोह के साथ ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष बताया।

1857 के विद्रोह के प्रमुख कारण :-

1757 में प्लासी युद्ध की जीत के साथ ब्रिटिश प्रशासन जो बंगाल में शुरू हुआ उसने भारतीय जनता का अमानवीय शोषण किया जिसका एकमात्र उद्देश्य भारतीयों का शोषण कर ईस्ट इंडिया कंपनी का खजाना भरना था।

  1. कृषकों का शोषण :-
  • ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार क्षेत्र में एकाधिकार से काफी समृद्ध हो गयी थी परन्तु फिर भी आय का मुख्य स्रोत भूमि ही थी।
  • भारत में उपनिवेश स्थापित करने के बाद भारतीय क्षेत्रो को अपने अधीन करने के लिए युद्ध तथा संधियों का सहारा लिया अत्यधिक आय के सदनों को विकसित करने के लिए भूमि व्यवस्था के नए उपाय निकाले।
  • स्थाई, रैयतवारी, और महलवारी बंदोबस्त जेसे एक से बढकर एक दमनकारी राजस्व व्यवस्था लागु की गयी।
  • कृषकों को भूमि पर वंशानुगत स्वामित्व अधिकार समाप्त कर राजभक्त जमींदार तथा राजस्व संग्रहकर्ता को भूमि का स्वामित्व दे दिया गया।
  • लगान के रूप में कृषकों को 10/11वा हिस्सा कंपनी को देना पड़ता था, जिसके न दिए जाने पर सम्पत्ति को दूसरों के हाथ बेच दिया जाता था। जब फसल अच्छी होती थी तो किसान को पुराना कर्ज चुकाना होता था, और जब खराब होती तो कर्ज का बोझ दुगना हो जाता था।
  • कर्ज के बोझ से बाध्य होकर अपनी भूमि महाजनों के हाथ बेच देनी पड़ती थी प्रशासन के अधिकारी भी कृषकों का शोषण करते थे न्यायालय से भी कोई इंसाफ नहीं मिलता था।
  • कृषकों ईस्ट इंडिया कंपनी की इन नीतिओ से बहुत व्यग्र हो उठे और किसी भी तरह इस व्यावस्था को उखाड़ फेंकना चाहते थे और इसका अवसर इन्हें 1857 के विद्रोह में मिला जिसमे किसानो ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।
  1. भारतीय रियासतों का विलय :-
  • ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन रियासतों के साथ भी धोखा किया जिन्होंने ‘सहायक संधि प्रणाली’ के तहत अधीनता स्वीकार कर ली थी 1848 में सतारा और 1854 में नागपुर तथा झांसी को वंशानुगत अधिकारी न होने पर अंग्रेजी शासन में मिला लिया 1856 मेंनवाब वाजिद अली शाह को अवध से निष्काषित कर अंग्रेजी शासन में मिला लिया। साथ ही समझोते के तहत ही जाने वाली पेंशन देने से इंकार कर दिया।
  • इससे उन क्षेत्रो की जनता, सिपाहियों में रोष उत्पन्न हुआ क्योंकि उनके देश प्रेम और गौरव को ठेस पहुँची।
  1. सिपाहियों की समस्याए :-
  • 1857 विद्रोह की शुरुआत सैनीक विद्रोह से हुई थी जो ब्रिटिश द्वारा किये जा रहे भेदभाव और शोषण से परेशान हो चुके थे उनको 7 से 8 रुपए का मासिक वेतन दिया जाता था जो काफी कम था क्यूंकि उन्हें इससे भोजन, वर्दी तथा व्यक्तिगत समानों निर्वाह व्यय करना पड़ता था।
  • ज्यादातर सिपाही कृषि से प्राप्त आय की कमी को दूर करने के लिए सेना में भरती हुए थे पर वेतन कम और नियमित नहीं मिलता था जिससे उनमे आक्रोश था।
  • भारतीय सिपाहियों के साथ ब्रिटिश अधिकारी अभद्र व्यवहार करते थे छुट्टी नहीं मिलती थी कम के घंटे भी ज्यादा थे। ब्रिटिश अधिकारी गाली-गलोज के साथ मारपीट और अपमानित करते थे।
  • भारतीय जवान कुशल, बहादुर और युद्ध सामर्थ्य थे पर उन्हें सूबेदार से ऊपर के पद नहीं दिया जाता था।
  1. धार्मिक कारण :-
  • 1857 विद्रोह का एक महत्वपूर्ण कारण भारतीयों को उनके धर्म को भ्रष्ट करने की और इसाई मिशनरियों के धर्मपरिवर्तन के रवैये को लेकर थी साथ ही सती प्रथा का अंत, विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता से भी लोगो को लगा ये उनके धर्म पर प्रहार है
  • 1824 में जवानों के 40वें रेजिमेंट ने समुद्री रास्ते से बर्मा जाने से इंकार कर दिया क्यूंकि उनके धर्म में उन्हें समुद्र को पार करने की अनुमति नहीं थी जिसके चलते अंग्रेजों ने रेजिमेंट को समाप्त कर कुछ नेताओं को मृत्यु दंड दिया।

 

  1. विद्रोह के तात्कालिक प्रमुख कारण :-
  • यदि देखा जाये तो 1857 के विद्रोह के बहुत से कारण थे परन्तु तात्कालिक कारण ग्रीज लगे कारतूस का एक गंभीर कारण था जिसने आग में चिंगारी लगाने का कम किया।
  • नए एनफिल्ड राइफल की कारतूसें जिन्हें सेना में लाया गया था इसे रायफल में भरने से पहले दाँत से काटना पड़ता था जिसमे ग्रीज गाय व सूअर की चर्बी से बना होता था इससे हिन्दू और मुस्लिम सनिको को लगा अंग्रेज जानबूझकर उनके धर्म को नष्ट करना चाहते है जिससे सिपहिओ ने बड़े पेमाने पर विद्रोह शुरू किया जिसका नेतृत्व मंगल पण्डे ने किया।

 

3) 18वीं शताब्दी में स्वतंत्र राज्यों के उद्भव के सामाजिक आर्थिक संदर्भ पर चर्चा कीजिए?

उत्तर:- 18वीं शताब्दी में स्वतंत्र राज्यों के उद्भव को यदि देखा जाए तो उसके पीछे मुगल साम्राज्य के पतन को एक महत्वपूर्ण कारण के रूप में देख सकता हैं क्योंकि यह दोनों प्रक्रिया एक साथ हो रही थी जहां मुगल साम्राज्य कमजोर होता गया वहीं नए साम्राज्य धीरे-धीरे अपनी जड़ों को स्थापित करते चले गए, साथ ही अंदरूनी कमजोरिया सामाजिक और आर्थिक बदलाव भी इसके लिए जिम्मेदार थे।

मुग़ल साम्राज्य का नियंत्रण कमजोर पड़ना :-

  • अगर हम साम्राज्य का क्षेत्र केन्द्रित सन्दर्भ में देखे तो राज्य व्यवस्था निरन्तर अंदर से ही विनाशकारी थी और गुटबंदी और अपकेन्द्रक शक्तियाँ केन्द्र से लगातार अलग हो रही थीं।
  • विशाल मुगल साम्रज्य का एक व्यक्तिगत और अत्यंत सैन्यीकृत और केन्द्रीय पहलुओं में संतुलन बनाये रखना हमेशा से मुश्किल रहा।
  • मुगल शासक एक पैतृक, अत्यधिक व्यक्तिगत शासन और अपनी सैनिक आकांक्षाओं के बीच फंसा रहा।
  • वे एक स्वतंत्र सैन्य नौकरशाही प्रथा की स्थापना नहीं कर पाए स्थानीय उच्च वर्ग अन्दर ही अन्दर अपनी स्थिति को और मजबूत बनाता रहा।

नवीन वर्गों और संस्थाओं का उदय ;-

  • मुग़ल साम्राज्य कमजोर होते ही केन्द्र की गुटबंदी से लेकर स्थानीय और क्षेत्रीय विशिष्ट वर्गों ने अपनी स्थति और मजबूत कर ली।
  • इनमे अवध के उच्च वर्ग लोग भी थे और बाकी स्थानों पर कुछ निम्न श्रेणी के तत्व भी शामिल थे जैसे पंजाब में जाट, किसान, या बंगाल में सदगोप जमींदारी महाजन और व्यापारी।
  • इन्होने एक साथ एकजुट होकर मुगल साम्राज्य के बढ़ते हुए व्यापार और उत्पादन का फायदा उठाया। ऊपरी सतह के सामाजिक विस्थापन के साथ-साथ कुछ पुरानी संस्थाओं का स्थान नवीन संस्थाओं ने लिया और कुछ को फिर से संगठित किया गया।

 

राजनीतिक प्रक्रियाओं में बदलाव :- अठारहवीं शताब्दी की राजनीतिक में तीन प्रकार की शासन प्रणालियों को देखा गया।

  1. पहली श्रेणी मे मुग़ल प्रसाशन व्यवस्था पुराने स्तर की रही अवध और बंगाल के नवाब केवल नाम के ही मुगल सूबेदार थे और उत्तराधिकारी राज्यों के रूप में इन प्रान्तों पर राज कर रहे थे इन्होने मुगलों की प्रथाओं और रीतियों को बनाये रखा
  2. दूसरी श्रेणी में वे राज्य आते थे. इनकी उत्पत्ति मुगल साम्राज्य की तरह नहीं थी इनमें मराठा, जाट और सिख राज्य आते थे इन्होने प्रसाशन में नए तंत्रों की स्थापना की जिनसे मुगल साम्राज्य को खतरा था।
  3. तीसरी श्रेणी की संरचनाएँ राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण थीं। इसमें मुसलमान तथा हिन्दू और आदिवासियों के कई स्थानीय प्रभाव वाले क्षेत्र आते थे जो अर्ध-स्वाधीन राज्यों की सीमाओं पर सिथत थे।

नए राज्यों की स्थापना :-

  • जाट ज़मींदारों को गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र से भगाया गया तो राजपूत वंशों ने पश्चिम में गुजरात से लेकर उत्तर में अवध तक, जीतकर , प्रवासन और प्रशासन द्वारा छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना की।
  • रोहिलखण्ड और भोपाल में अफगान सरदारों ने और साथ ही बनारस राज और बंगाल में बुर्दवान और कासिम बाज़ार के जमींदारों ने भी राजस्व के ठेके और व्यापार द्वारा अपने राज्यों को संगठित किया।
  • दक्षिण में भी तेलुगुभाषी नायकों ने छोटे-छोटे राज्य बना रखे थे।

 

4) क्या युद्ध और सैन्यीकरण ने मैसूर और हैदराबाद राज्यों की स्थापना में कोई भूमिका अदा की है चर्चा कीजिए ?

उत्तर:- किसी भी राज्य की स्थापना के लिए और उसके प्रसाशन को मजबूती प्रदान करने के लिए सैन्यीकरण अत्यधिक महत्वपूर्ण कारक है इसी तरह 18वी शताब्दी मे मैसूर और हैदराबाद ने भी अपनी परिस्तिथियों को मजबूत करने के लिए और समाओ को बढ़ने के लिए युद्ध और सैन्यीकरण की निति अपनाई।

 मैसूर

युद्ध और सैन्यीकरण :-

  • युद्ध और सैन्यीकरण मैसूर के इतिहास में शुरू से ही देखा जा सकता है इतिहासकार स्टाइन ने भी विजयनगर साम्राज्य के विस्तार को सैन्यीकरण का आधार मन है दक्षिण भारत में सबसे पहले विजयनगर ने ही स्थानीय राजाओं और दूसरी बाहरी ताकतों पर अपना कब्जा कायम करने के लिए  बंदूक, पिस्तौल जैसे हथियारों का प्रयोग आरंभ किया।

स्थानीय सरदारों की भूमिका :-

  • मैसूर में सैन्यीकरण मे स्थानीय सरदारों की भूमिका अहम् थी इसमें स्थानीय सरदार, और पोलीगर, शिकारी संग्रहकर्ता समूहों के वंशज महत्वपूर्ण थे जिनके पास सैन्य कौशल और विजयनगर साम्राज्य की सेना स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व का भी जान था।
  • अठारहवी शताब्दी मे इनके पास शक्ति के दो माध्यम थे
  1. राजस्व अपनी भूमियों से मिलने वाला अंशदान,
  2. संप्रदाय के मंदिरों के पुरोहितों का समर्थन।

अठारहवीं शताब्दी मे प्रमुख शासको के प्रयास :-

  • चिक्कदेव राजा वोडयार ने मैसूर में महत्व्पूर्ण सैन्यीकरण बदलाव किये।
  • सैनिक क्षमता बढ़ाने के लिए आम राजस्व को बढ़ा दिया
  • सैनिकों की भूमि को राजस्व करों से मुक्त कर दिया।
  • हैदर अली जो मैसूर प्रशासन में निम्न स्तर से उठकर उच्च स्तर तक आया था जिससे वह इसे मजबूती दे पाया ।
  • स्थानीय सरदारों के महत्त्व को कम करने के लिए भूमि महत्वाकांक्षी योद्धाओं को दी और राजस्व का भर स्थानीय सरदारों पर दल दिया
  • हैदर अली ने इन सरदारों की स्वाधीनता को समाप्त किया और आगे किसी ने विरोध किया तो भूमि से बेदखल कर दिया ।
  • सरदारों के कार्य क्षेत्र को सीमित करके स्थानीय प्रभुत्व को समाप्त किया
  • हैदर अली का पुत्र टीपू सुल्तान जब प्रशासन में आया तो उसने पोलीगारों के महत्त्व को समाप्त किया उनकी भूमि को निजी क्षेत्र के व्यक्तियों को या फिर सरकारी अधिकारियों को किराये पर दे दी
  • टीपू सुल्तान ने अपने सैनिकों को नियमित तनख्वाह देनी शुरू की जिससे सेना में स्थानीय सरदार और स्वार्थी तत्व सर न उठा सके।

 

सैनिकों को विशेष प्रशिक्षण

  • फ्रांसीसी सैनिकों की भर्ती की और उनसे सैनिकों को प्रशिक्षण दिलवाया
  • पैदल सेना और तोपचियों के प्रशिक्षण में मदद ली गयी
  • इतिहासकार संजय सुब्रहमण्यम के अनुसार इससे आधुनिक यूरोपीय आग्नेयास्त्रों और तोपों के प्रयोग शुरू हुआ
  1. II. हैदराबाद
  • हैदराबाद के प्रशासन में राज्यतंत्र का एक अहम् अंग सेना ही थी
  • हैदराबाद के शासक निजामुल मुल्क ने जागीरदारी व्यवस्था कायम राखी
  • सेनापति एवं सैनिक कार्य के आधार पर सामंतों के जरिए राजनीतिक व्यवस्था से बंधे थे। स्थानीय सरदारों को अधिकार प्राप्त थे
  • हैदराबाद की सेना का रख-रखाव निजाम के खजाने से होता था जो सामंतों द्वारा लिए गए नकद भत्तों से किया जाता था।

 

5) बंगाल में स्थाई बंदोबस्त पर चर्चा कीजिए। इसके क्या परिणाम हुए?

उत्तर :- 1786 में लार्ड कार्नवालिस को भारत भेजा गया ताकि वह राजस्व प्रणाली में सुधर ला सके उन्होंने  भारत आकर महसूस किया कि वर्तमान व्यवस्था देश को गरीब बना रही है और कृषि वयवस्था का  पतन हो रहा है उत्पादन निम्न था जबकि कंपनी अधिक और नियमित अधिशेष चाहती थी। इसके परिणामस्वरूप बंगाल मे नई वयवस्था लायी गयी।

स्थाई बंदोबस्त :-

  • ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व निर्धारित कर जमीदारो को भूमि सुधार में निवेश करने के लिए प्रोत्साहन दिया और साथ ही यह भी सुनिश्चित किया की राजस्व इकठ्ठा करने का अधिकार भी जमीदारो का होगा।

नई वयवस्था लाये जाने के कारण :-

  • कार्लवानिस ने पाया कंपनी भारत से जिन वस्तुओं को यूरोप के बाजारों में बेचना है उनका उत्पादन कम है जेसे रेशम, सूत आदि इसका कारण कृषि पतनोन्मुख होना था।
  • कार्नवालिस और लंदन के अधिकारियों ने पाया की भू राजस्व इकठ्ठा करने की व्यवस्था में ही भ्रष्टाचार भी है और शोषण भी इसलिए इसमें बदलाव जरुरी है।
  • इसलिए भू-कर को स्थाई और भविष्य में कभी कर न बढ़ने का आश्वासन किसानो को दिया गया ताकि उत्पादन को बढाया जा सके जिससे कंपनी को फायदा हो। कार्नवालिस का मानना था व्यापार और वाणिज्य बढ़ा तो कर कभी भी बढाया जा सकता था।

स्थाई बंदोबस्त के परिणाम :-

  • इस व्यवस्था में जमींदारों की स्थिति मजबूत दिखाई देती है परन्तु हर  वर्ष एक निश्चित समय पर  व एक  निश्चित रकम सरकारी खजाने में चुकानी होती थी। इसमें चूकने पर कंपनी जमींदारी भी नीलम केर देती थी।
  • कुछ जमीदारियों की दर इतनी ज्यादा थी कि बाढ़, सूखे तथा अन्य प्राकृत आपदा के कारण उनके पास अधिशेष बचता ही नहीं था। जिससे जमींदारों की जमींदारी छीन ली जाती थी और फिर ये दशकों तक बेचीं जाती रही।
  • बंगाल में 1794 और 1819 के मध्य तक लगभग 68 प्रतिशत जमीदारो की भूमि बेचीं गयी जिसे बड़े व्यापारियों, सरकारी पदाधिकारियों तथा दुसरे जमीदारो ने ख़रीदा और इन्होने मुनाफा कमाने के लिए किसानों पर अतिरिक्त राजस्व का भार डाला। राजा राममोहन राय बताते है  "1793 से स्थाई बंदोबस्त के द्वारा लगान बढ़ाने की कोशिश हर तरह से की गयी।
  • जमींदारी की जमीनों को भी जमीदार कई टुकड़ों में बाँट देते थे और अपने से निचे पटनी ताल्लुक को देते थे और उनसे उसके बदले नियत राशि चाहते थे जिसके न मिलने पर इनकी पटनी जब्त कर बेच डी जाती थी इस तरह एक सामन्ती व्यवस्था की कड़ी देखि जा सकती है।
  • बंगाल की जनसंख्या में वृद्धि के साथ जमीनों और जंगलों को भी खेतों परिवर्तित किया गया ताकि उत्पादन बढ़ा कर और अधिक राजस्व लिया जा सके ।
  • रकम स्थिर और जादा मुनाफा होने से कई जगह जमींदारों की स्थिति में सुधार आया और अपने काश्तकारों के खर्चे पर ये एक विलासपूर्ण जीवन जीने लगे ।

 6) भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी की भूमिका की चर्चा कीजिए?

उत्तर :- महात्मा गांधीजी ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारतीय राजनीति की दिशा और दशा और उसकी सीमाओं को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । गांधी जी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक जन आंदोलन में बदल दिया तथा इस आंदोलन  में गांधीजी ने हर वर्ग ,धर्म यहां तक की गरीब किसानो, युवाओं, महिलाओं तक की भागीदारी को सुनिश्चित किया । गांधीजी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपने आत्मविश्वास से सत्य अहिंसा, सत्याग्रह जैसे हथियारों का सहारा लिया जिससे उन्हें पूरे भारत में सार्वभौमिक समर्थन प्राप्त हुआ। भारतीय स्वतंत्रता की इस लंबी लड़ाई में गांधी जी ने आगे चलकर इन्हें ही अपना हथियार बनाया और इन के दम पर उन्होंने कई बड़े आंदोलन खड़े कर दिए जिन्हें जनता से भरपूर समर्थन मिला जैसे असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन जो भारतीय स्वतंत्रता की नीव बने ।

गांधीजी की शुरुआती भूमिका :- गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से एक लंबे अनुभव के बाद 1915 में भारत की जमीन पर वापस लोटे।  कुछ समय बिताने के बाद अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के परामर्श पर संपूर्ण भारत के विषय में जानने के लिए अनेक यात्राएं की। भारतीय परिस्थिति को जानने के बाद उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी सक्रियता शुरू की जिसका उदाहरण हमें उनके आंदोलन में साफ तौर पर नजर आता है जिनमें प्रमुख हैं।

  1. बिहार के चंपारण में नील की खेती करने से किसानों की दुर्दशा बहुत ही दयनीय थी उन्हें मजबूरन खेती करनी पड़ती थी जमींन भी ख़राब होती और राजस्व भी अधिक था गाँधी जी ने प्रथम चंपारण सत्याग्रह (1917) यही से शुरू किया और यहाँ के किसानो के वाजिब हक़ दिलवाए। इसी क्रम मे गुजरात के खेडा (1918) में आन्दोलन कर वह के किसानो की जब्त भूमि वापिस दिलवाई और कर की वसूली पर रोक लगवाई। बाद में अहमदाबाद मिल हड़ताल (1918) से मजदूरो को उनका हक़ दिलवाया जिससे गांधीजी एक जन नेता बन के उभरे और उन्हें महात्मा गांधी नाम से पहचान मिली।
  2. मार्च 1919 में, रोलेट एक्ट एक ऐसा कला कानून ब्रिटिश सरकार द्वार भारत में लागु किया गया जिसके जरिये शक के आधार पर बिना वारंट के कही पर भी तलाशी और लोगों पर बिना मुकदमा चलाए दो साल तक हिरासत में रखा जा सकता था। गांधीजी ने इस अधिनियम के खिलाफ पुरे भारत में सत्याग्रह आंदोलन का शुरू किया जिसे पूरे देश से समर्थन मिला ।
  3. असहयोग आंदोलन (1920) :- जलियांवाला बाग हत्याकांड और रोलेट एक्ट जैसी घटनाओ के चलते लोगो की राष्ट्रवादी भावनाए प्रबल थी जिसके चलते गांधीजी ने असहयोग आंदोलन 04 सितंबर 1920 शुरू किया । देखते ही देखते इस आन्दोलन को जनता की सहानुभूति पुरे भारत में मिली और यह एक रास्ट्रीय आन्दोलन बन गया। हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए इस आन्दोलन को ख़िलाफ़त आन्दोलन से जोड़ा । सत्य और अहिंसा पर चलने वाले इस आन्दोलन को चोरी-चोरा नमक स्थान पर एक हिंसा भरी घटना के चलते गांधीजी द्वारा वापस ले लिया। लेकिन फिर भी इस आन्दोलन से गांधीजी ने पुरे देश को एक किया जहा इस आन्दोलन में हर वर्ग , उम्र , जाती , धर्म के लोग साथ आये।
  4. सविनय अवज्ञा और नमक सत्याग्रह (1930) :- असहयोग आंदोलन की समाप्ति के बाद गांधीजी ने अपना अगला बड़ा आन्दोलन नामक कानून के खिलाफ शुरू किया जिस पर ब्रिटिश सरकार द्वार अत्यधिक कर लगया जाता था और भारतीयों को उसे बनाने का अधिकार भी नहीं था। गांधीजी ने इसे एक राष्ट्रीय आन्दोलन बनया और जन जन को इस आन्दोलन से जोड़ा। 12 मार्च 1930 से गांधीजी ने इस आन्दोलन के लिए 79 अनुयायियों के साथ 24 दिन में 240 मील की यात्रा की जो साबरमती आश्रम से दांडी तक थी और वह पहुँच कर मुठी भर नामक बना कर कानून तोडा और यही से शुरू हुआ सविनय अवज्ञा आन्दोलन।
  5. भारत छोड़ो आंदोलन :- गांधीजी ने 08 अगस्त, 1942 भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की और 'करो या मरो' का नारा दिया तथा  यह निर्देश दिया-
  • किसी भी सरकारी कम में सहयोग न दे
  • सरकारी कर्मचारियों देश के प्रति वफादारी करे
  • सेना के जवानों को अपने देश के लोगो पर गोली ना चलाये
  • वकीलों से कचहरी न जाये
  • विदेशी सामान न ख़रीदे
  • शिक्षा संस्थानो के बहिष्कार

7) राजा राममोहन राय के मुख्य विचारों पर चर्चा कीजिए। क्या वे तर्कवाद में विश्वास करते थे ?

उत्तर :- राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत का जनक मन जाता है उनकी प्रतिभा बहुआयामी थी, उन्होंने राष्ट्रीय पुनर्जागरण से सम्बंधित जीवन के सभी महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया और राष्ट्र की पुनर्रचना के लिए संघर्ष किया, साथ ही कई समाज सुधार कार्य किये। उनकी  प्रारंभिक शिक्षा फारसी और अरबी भाषाओं में हुई साथ ही उन्हें  कई भाषाओं का ज्ञान था। राजा राममोहन राय पश्चमी शिक्षा और बुद्धिवाद तथा आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के समर्थक थे।

राममोहन राय के धार्मिक और सामाजिक विचार:-

  • राममोहन राय ने अपने विवेक और सामाजिक लाभ जेसे विचारो के माध्यम से सभी धर्मो की व्याख्य की उन्होंने धर्म के अंदर चमत्कारिक मान्यताओ को चुनोती दी।
  • राममोहन राय ने सुधार सक्रियता 1814 में कलकत्ता में धार्मिक एवं सामाजिक कुरीतियों के विरोध से प्रारंभ की।
  • राममोहन राय ने मूर्ति पूजा का विरोध और एकेश्वरवाद का समर्थन किया उन्होंने धार्मिक ग्रंथो की ब्राह्मण, पुरोहितों द्वारा दी गयी व्यखाओ को गलत बताया, एकेश्वरवाद के पक्ष में कई धार्मिक ग्रंथों का बंगाली भाषा में अनुवाद किया।
  • उन्होंने बहु-विवाह एवं बाल विवाह का विरोध किया समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति को सुधारने के महिला शिक्षण पर जोर दिया।
  • राममोहन राय आधुनिक शिक्षा के समर्थक थे उन्होंने डेविड हेयर को समर्थन दिया जिसने कलकत्ता में हिंदू कालेज की स्थापना 1817 में की साथ ही अपने खर्चे पर 1825 में वेदांत कालेज का निर्माण कराया जिसमे भारतीय कोर पश्चिम दोनों प्रकार की शिक्षा डी जा सके।

राममोहन के पाश्चात्य विचार ;-

  • राममोहन राय पूर्व और पश्चिम के वचारो की विशेषताओं को एक साथ लाना चाहते थे। उन्होंने भारत के वैचारिक ज्ञान के साथ पश्चिम के ज्ञान गणित, प्राकृतिक दर्शन, रसायन, शरीर क्रिया विज्ञान जेसे शिक्षण पर बल दिया। वे यूरोप की प्रगति को भारतीयों तक पहुचना चाहते थे।

राममोहन के राजनीतिक एवं आर्थिक  विचार ;-

  • राममोहन राय द्वारा जमींदारी व्यवस्था की आलोचना की गयी तथा सरकारी सेवाओं में भारतीयों की भागीदारी, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के अलग अधिकार क्षेत्र और भारत में सभी को एकसमान  न्यायिक समानता का पक्ष लिया।

ब्रह्म समाज

  • राममोहन राय ने 1828 में ब्रह्म सभा की स्थापना की जो बाद में ब्रह्म समाज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस समाज के द्वारा उन्होंने हिन्दुओ में फेली सामाजिक और धार्मिक बुराइयों को समाप्त कर अन्य धर्मो सही श्रेष्ठ शिक्षाएँ इसमें शामिल करना था यह मानवतावाद, एकेश्वरवाद सामाजिक पुनर्जागरण का मंच बना।
  • राममोहन राय अपने समूचे सक्रियता काल में 'तर्कवादी' बने रहे "तुहफत" में उनके "तर्कवाद" का पूर्ण परिपक्व रूप देखा जा सकता है उनकी परिवर्ती रचनाओं में भी यथार्थ की कसौटी के रूप में विवेक को उसका समुचित स्थान मिलता है। यद्यपि बाद में चलकर उन्होंने धर्मग्रंथों का आश्रय लिया, लेकिन ऐसा हिंदू समाज में सुधारों को बढ़ावा देने के लिए ही उन्होंने किया।

राममोहन राय तर्कवाद

  • राममोहन राय 'तर्कवादी' थे इस का उदाहरण हमें उनकी कृति "तुहफत-उल-मुवाहिदीन" दिखाई पड़ता है जिसे 1905 में प्रकाशित किया गया जिसमें वो  'विवेक' तथा 'सामाजिक लाभ' से विश्व के मुख्य धर्मों का विश्लेषण किया।

8- सिख राज्य के उदय पर चर्चा कीजिए

सिख राज्य का उदय दक्षिण एशिया के इतिहास में एक उल्लेखनीय अध्याय है
जो 18वीं और 19वीं शताब्दी में एक शक्तिशाली और संप्रभु सिख साम्राज्य के उद्भव से चिह्नित है। 
इस अवधि में सिख समुदाय का धार्मिक अल्पसंख्यक होने से लेकर अपनी स्वयं की राजनीतिक इकाई स्थापित करने तक का सफर देखा गया।

सिख राज्य की स्थापना का श्रेय सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक (1469-1539) के दूरदर्शी नेतृत्व को दिया जा सकता है। उन्होंने समानता, सामाजिक न्याय और एक ईश्वर के प्रति समर्पण के सिद्धांतों का प्रचार किया, जो जनता के बीच दृढ़ता से गूंजा और धीरे-धीरे एक अलग सिख पहचान का निर्माण हुआ। गुरु नानक के उत्तराधिकारियों, विशेष रूप से गुरु गोबिंद सिंह (1666-1708) ने, बपतिस्मा प्राप्त सिखों के एक समर्पित आदेश, खालसा के निर्माण के माध्यम से सिख समुदाय की विशिष्टता और मार्शल भावना को और मजबूत किया।

सिख राज्य के उदय में निर्णायक मोड़ 18वीं शताब्दी में महाराजा रणजीत सिंह (1780-1839) के उदय के साथ आया। उन्होंने विभिन्न सिख मिसलों (संघों) को एकजुट किया और एक केंद्रीकृत सिख साम्राज्य की स्थापना की जिसे सिख साम्राज्य या सिख साम्राज्य के नाम से जाना जाता है। महाराजा रणजीत सिंह के चतुर नेतृत्व, सेना के आधुनिकीकरण और कूटनीतिक कौशल ने सिखों को पंजाब क्षेत्र और उससे आगे अपना प्रभाव बढ़ाने में सक्षम बनाया। साम्राज्य की राजधानी, लाहौर, एक संपन्न सांस्कृतिक और राजनीतिक केंद्र बन गई।

महाराजा रणजीत सिंह के शासन में, सिख राज्य आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से फला-फूला।
1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद, आंतरिक कलह और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बाहरी दबाव के कारण सिख साम्राज्य का पतन हुआ।

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (1845-1846) और द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848-1849) की परिणति 1849 में अंग्रेजों द्वारा सिख राज्य पर कब्जे के रूप में हुई। 
इस विलय ने सिख साम्राज्य की संप्रभुता के अंत को चिह्नित किया, लेकिन सिख राज्य के उदय की विरासत ने सिख पहचान, राजनीति और आकांक्षाओं को प्रभावित करना जारी रखा।

सिख राज्य के उदय ने दक्षिण एशियाई इतिहास पर प्रभाव छोड़ा। इसने मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक मानदंडों को चुनौती देते हुए एक शक्तिशाली और एकजुट राजनीतिक इकाई बनाने के लिए एक हाशिए पर रहने वाले समुदाय की क्षमता का प्रदर्शन किया। 
समानता, न्याय और धार्मिक स्वतंत्रता पर सिख राज्य के जोर ने शासन और मानवाधिकारों पर व्यापक चर्चा में भी योगदान दिया।


9- सांप्रदायिकतावाद से आप क्या समझते हैं ? इस के उद्भव और विकास पर चर्चा कीजिए ।

सांप्रदायिकता एक सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक घटना को संदर्भित करती है ( जहां व्यक्ति राष्ट्रीय या नागरिक पहचान की व्यापक भावना के बजाय मुख्य रूप से अपने धार्मिक, जातीय या सांस्कृतिक समूह के साथ पहचान करते हैं )। इसमें अक्सर बड़े समाज के हितों पर समूह के हितों को प्राथमिकता दी जाती है, जिससे विभिन्न धार्मिक या जातीय समुदायों के बीच तनाव, संघर्ष और यहां तक कि हिंसा भी होती है। 
सांप्रदायिकता राष्ट्र- निर्माण के प्रयासों में बाधा डाल सकती है 

सांप्रदायिकता के उद्भव और विकास की जड़ें ऐतिहासिक हैं जिन्हें विभिन्न क्षेत्रों और कालखंडों में खोजा जा सकता है। सांप्रदायिकता के लिए एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक भारत जैसे देशों में औपनिवेशिक शासन था, जहां अंग्रेजों ने नियंत्रण बनाए रखने के लिए "फूट डालो और राज करो" की नीति अपनाई। 
अंग्रेज अक्सर धार्मिक या जातीय आधार पर कुछ समुदायों को वर्गीकृत करते थे और उनका समर्थन करते थे, जिससे विभिन्न समूहों के बीच प्रतिस्पर्धा और दुश्मनी का माहौल बनता था।

भारतीय संदर्भ में, 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में सांप्रदायिकता को प्रमुखता मिलनी शुरू हुई। 1905 में बंगाल का विभाजन, औपनिवेशिक प्रशासनिक विचारों से प्रेरित एक निर्णय था, जिसने सांप्रदायिक तनाव को भड़का दिया क्योंकि इसे एक धार्मिक समुदाय को दूसरे के पक्ष में करने के रूप में देखा गया था। इससे व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए और सांप्रदायिक राजनीति का उदय हुआ, धार्मिक पहचान का तेजी से राजनीतिकरण होने लगा।

प्रथम विश्व युद्ध और उसके परिणामों ने सांप्रदायिक भावनाओं को और अधिक भड़का दिया। खिलाफत आंदोलन, जिसका उद्देश्य ओटोमन खलीफा का समर्थन करना था, और असहयोग आंदोलन, दोनों में सांप्रदायिक स्वर थे, क्योंकि नेताओं ने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धार्मिक समुदायों को संगठित करने की कोशिश की थी। स्वतंत्रता के लिए व्यापक संघर्ष के साथ सांप्रदायिक राजनीति की परस्पर क्रिया ने विविध समाज में सांप्रदायिकता के संभावित खतरों को उजागर किया।

सांप्रदायिकता की सबसे दुखद अभिव्यक्ति 1947 में भारत के विभाजन के दौरान देखी गई थी। एक अलग मुस्लिम राज्य, पाकिस्तान की मांग के कारण व्यापक हिंसा और विस्थापन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप अनगिनत लोगों की जान चली गई और लाखों लोग विस्थापित हुए। विभाजन ने सांप्रदायिक राजनीति की विभाजनकारी प्रकृति और सामाजिक एकता पर इसके गंभीर परिणामों को रेखांकित किया।

आज़ादी के बाद भी साम्प्रदायिकता भारतीय राजनीति को प्रभावित करती रही। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग जैसी सांप्रदायिक पार्टियों के उदय ने राजनीतिक परिदृश्य में एक और परत जोड़ दी। ये पार्टियाँ अक्सर विशिष्ट धार्मिक समुदायों के हितों की वकालत करती थीं, कभी-कभी धर्मनिरपेक्ष और समावेशी मूल्यों की कीमत पर।

बाद के दशकों में, सांप्रदायिक तनाव समय-समय पर भड़कते रहे, जो अक्सर राजनीतिक अवसरवादिता, आर्थिक असमानताओं और सांस्कृतिक मतभेदों के कारण भड़कते थे। 
भारत के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा, जैसे 1984 में सिख विरोधी दंगे और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस, ने सांप्रदायिकता के विनाशकारी परिणामों को उजागर किया।

दुनिया भर के अन्य क्षेत्रों में, सांप्रदायिकता भी संघर्षों और विभाजनों में एक महत्वपूर्ण कारक रही है। उदाहरण के लिए, 1990 के दशक में यूगोस्लाविया के विघटन का कारण बने जातीय और धार्मिक तनाव को सांप्रदायिकता के ढांचे के भीतर समझा जा सकता है।
सांप्रदायिकता का विकास अक्सर व्यापक सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गतिशीलता से जुड़ा होता है। आर्थिक असमानताएँ, संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा, सांस्कृतिक मतभेद और ऐतिहासिक शिकायतें जैसे कारक सभी सांप्रदायिक भावनाओं के बढ़ने में योगदान कर सकते हैं। इसके अलावा, राजनीतिक नेता और समूह अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इन भावनाओं का फायदा उठा सकते हैं, जिससे सांप्रदायिक आधार पर समाज का ध्रुवीकरण हो सकता है।


10- भारत में उपनिवेशवाद के तीन चरणों की चर्चा कीजिए वह किस प्रकार से एक दूसरे से भिन्न थे।

भारत में उपनिवेशवाद तीन अलग-अलग चरणों से गुज़रा, जिनमें से प्रत्येक की विशेषताएँ, प्रेरणाएँ और प्रभाव अलग-अलग थे। 
16वीं सदी से लेकर 20वीं सदी के मध्य तक फैले ये चरण विभिन्न यूरोपीय शक्तियों द्वारा संचालित थे, जिनमें से प्रत्येक ने भारतीय उपमहाद्वीप पर एक छाप छोड़ी।

1. पुर्तगाली और प्रारंभिक यूरोपीय व्यापारिक उपस्थिति ( 16वीं-17वीं शताब्दी )

भारत में उपनिवेशवाद का पहला चरण 15वीं शताब्दी के अंत में पुर्तगालियों के आगमन के साथ शुरू हुआ। पूर्व के आकर्षक मसाला व्यापार तक सीधी पहुंच की तलाश में, पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तट पर, विशेष रूप से गोवा में व्यापारिक चौकियाँ स्थापित कीं। उनका प्राथमिक ध्यान समुद्री व्यापार और गढ़वाले बंदरगाहों की स्थापना पर था।

भारत में पुर्तगाली प्रभाव तटीय इलाकों तक ही सीमित रहा, और उनकी बातचीत काफी हद तक व्यापार और धर्मांतरण तक ही सीमित थी। उनका उद्देश्य व्यापार मार्गों को नियंत्रित करना और क्षेत्र से मूल्यवान वस्तुओं को निकालना था। हालाँकि उनके धार्मिक उत्साह के कारण ईसाई धर्म का प्रसार हुआ, लेकिन उन्होंने उपमहाद्वीप के महत्वपूर्ण हिस्सों पर प्रत्यक्ष राजनीतिक नियंत्रण स्थापित नहीं किया।

2. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और औपनिवेशिक शासन की स्थापना (18वीं-19वीं शताब्दी )

उपनिवेशवाद के दूसरे चरण में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उदय हुआ। एक व्यापारिक इकाई के रूप में शुरुआत करते हुए, अंग्रेजों ने धीरे- धीरे आर्थिक और राजनीतिक हेरफेर के माध्यम से अपना प्रभाव बढ़ाया। 1757 में प्लासी की लड़ाई एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई, जिससे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित करने में मदद मिली।

इस चरण की विशेषता व्यापार से राजनीतिक और क्षेत्रीय नियंत्रण की ओर क्रमिक संक्रमण था। अंग्रेजों ने अपने प्रभुत्व का विस्तार करने के लिए कूटनीति, गठबंधन और सैन्य बल के संयोजन का उपयोग किया। 1858 में ब्रिटिश राज की स्थापना ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश को राजनीतिक सत्ता के औपचारिक हस्तांतरण को चिह्नित किया, जिससे भारत ब्रिटिश साम्राज्य का प्रत्यक्ष उपनिवेश बन गया।

पुर्तगालियों के विपरीत, अंग्रेजों ने क्षेत्रीय विजय और प्रत्यक्ष शासन की नीति अपनाई। उन्होंने भारत के संसाधनों का दोहन किया, एक संरचित प्रशासन की स्थापना की और ब्रिटिश हितों को प्राथमिकता देने वाली आर्थिक नीतियों को लागू किया। 
इस चरण में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विभिन्न आंदोलनों का उदय भी देखा गया, जैसे 1857 का भारतीय विद्रोह, जिसने ब्रिटिश प्रभुत्व के प्रति बढ़ते प्रतिरोध को उजागर किया।

3. स्वतंत्रता और उपनिवेशवाद से मुक्ति के लिए संघर्ष ( 20वीं सदी )

भारत में उपनिवेशवाद के तीसरे चरण की विशेषता स्वतंत्रता के लिए भारतीय संघर्ष और अंततः उपनिवेशवाद से मुक्ति की प्रक्रिया थी। जैसे-जैसे भारतीय राष्ट्रवाद ने गति पकड़ी, ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के उद्देश्य से आंदोलनों और अभियानों की एक श्रृंखला केंद्र में आ गई। महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ जनता को संगठित करने के लिए अहिंसक प्रतिरोध और सविनय अवज्ञा का उपयोग किया।

स्वतंत्रता के संघर्ष में क्षेत्रीय और सांप्रदायिक विभाजनों से परे एक एकजुट भारतीय पहचान का उदय हुआ। इसकी परिणति 1947 में भारत को आजादी मिलने के साथ हुई, साथ ही विभाजन के कारण अलग राष्ट्र पाकिस्तान का निर्माण हुआ।
यह चरण पिछले दो चरणों से स्पष्ट रूप से भिन्न था, क्योंकि यह विदेशी प्रभुत्व से स्वदेशी एजेंसी और आत्मनिर्णय के दावे की ओर बदलाव का प्रतिनिधित्व करता था। उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के कारण प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन का अंत हुआ
इसके साथ उपमहाद्वीप का दर्दनाक विभाजन और लंबे समय तक चलने वाली राजनीतिक और सामाजिक चुनौतियाँ पैदा हुईं।


11- मैसूर और हैदराबाद कि राज्य संरचना पर तुलनात्मक टिप्पणी कीजिए।

मैसूर और हैदराबाद की राज्य संरचनाएँ स्वतंत्र- पूर्व भारत में राजनीतिक विकास के उदाहरण हैं। जबकि दोनों क्षेत्रों ने राज्य-निर्माण के का अनुभव किया, वे ऐतिहासिक संदर्भ, शासन संरचनाओं, सांस्कृतिक प्रभावों और औपनिवेशिक शक्तियों के साथ बातचीत के मामले में काफी भिन्न थे। यहां, हम मैसूर और हैदराबाद में राज्य गठन की तुलना और तुलना करते हैं।

1- ऐतिहासिक संदर्भ:

मैसूर: भारत के दक्षिणी भाग में स्थित मैसूर राज्य का इतिहास प्राचीन काल से चला आ रहा है। यहां वाडियार राजवंश का शासन था, जिसने इस क्षेत्र में अपना अधिकार स्थापित किया और धीरे-धीरे अपनी शक्ति को मजबूत किया। विदेशी प्रभाव के दौरान भी मैसूर के शासकों ने सापेक्ष स्वायत्तता बनाए रखी।

हैदराबाद: इसके विपरीत, दक्कन क्षेत्र में स्थित हैदराबाद राज्य का इतिहास विभिन्न राजवंशों और सत्ता संघर्षों से चिह्नित था। 
कुतुब शाही राजवंश और बाद में आसफ जाही राजवंश, जिन्हें हैदराबाद के निज़ाम के रूप में जाना जाता है, ने इस क्षेत्र पर प्रभुत्व स्थापित किया। 
हैदराबाद के ऐतिहासिक संदर्भ में फ़ारसी संस्कृति, राजनीतिक जटिलता और शासन की एक जटिल प्रणाली का मिश्रण था।

2- औपनिवेशिक बातचीत:

मैसूर: एंग्लो- मैसूर युद्धों के दौरान मैसूर साम्राज्य ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सीधे संपर्क में आया। 
लॉर्ड कॉर्नवालिस और लॉर्ड वेलेस्ली जैसी शख्सियतों के नेतृत्व में मैसूर और अंग्रेजों के बीच संघर्ष के परिणामस्वरूप मैसूर की शक्ति धीरे- धीरे कमजोर हो गई और सहायक गठबंधन प्रणाली लागू हो गई, जिससे इसकी संप्रभुता कम हो गई।
हैदराबाद: हैदराबाद के निज़ामों ने अंग्रेजों के साथ सतर्क जुड़ाव की नीति बनाए रखी। उन्होंने सेरिंगपट्टम की संधि और बेसिन की संधि जैसी संधियों में प्रवेश किया, जिसने उन्हें कुछ हद तक स्वतंत्रता बनाए रखने की अनुमति दी, लेकिन साथ ही उन्हें ब्रिटिश प्रभाव के अधीन भी कर दिया। ब्रिटिशों द्वारा बनाए गए एक सैन्य बल, हैदराबाद दल ने निज़ामों को औपनिवेशिक सत्ता से बांध दिया।

3- शासन और सांस्कृतिक प्रभाव:

मैसूर: मैसूर के शासकों, विशेषकर टीपू सुल्तान और बाद में कृष्णराज वाडियार तृतीय ने आधुनिकीकरण और सुधार को अपनाया। 
उनके शासन के तहत मैसूर ने प्रशासन, शिक्षा और बुनियादी ढांचे में उल्लेखनीय प्रगति देखी। वे कला और संस्कृति के संरक्षक भी थे, जिन्होंने मैसूर की सांस्कृतिक पहचान के विकास में योगदान दिया।
हैदराबाद: निज़ामों ने शासन के लिए अधिक पारंपरिक दृष्टिकोण अपनाया, सामंती संबंधों और धार्मिक प्रभाव की एक जटिल प्रणाली को बनाए रखा। दक्कन क्षेत्र की फारसी संस्कृति ने हैदराबाद राज्य की दरबारी परंपराओं और प्रशासनिक प्रथाओं को काफी प्रभावित किया। हालाँकि, मैसूर की तुलना में आधुनिक सुधार अपेक्षाकृत सीमित थे।

4- स्वतंत्र भारत में एकीकरण

मैसूर: भारत की स्वतंत्रता के बाद, मैसूर रियासत बिना किसी महत्वपूर्ण संघर्ष के नवगठित भारतीय संघ में शामिल हो गई। वाडियार ने राज्य के शासन में भूमिका निभाई और धीरे-धीरे लोकतांत्रिक ढांचे में परिवर्तित हो गए।
हैदराबाद: स्वतंत्र भारत में हैदराबाद का एकीकरण अधिक जटिल और विवादास्पद था। निज़ाम, मीर उस्मान अली खान ने शुरू में स्वतंत्रता या पाकिस्तान में विलय की इच्छा व्यक्त की। हालाँकि, 1948 में भारत सरकार के ऑपरेशन पोलो के परिणामस्वरूप हैदराबाद का भारत में विलय हो गया।


12- क्या अंग्रेजी शासन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने अधीन लाकर अपना स्वार्थ पूरा किया ? चर्चा कीजिए

हां, भारत में ब्रिटिश शासन ने अपने हितों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी हद तक अपने अधीन कर लिया, जिससे शोषणकारी आर्थिक नीतियां, संसाधनों का दोहन और एक औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की स्थापना हुई, जो भारत की आर्थिक भलाई की कीमत पर ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों की सेवा करती थी। यह आर्थिक शोषण भारत पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभाव का एक प्रमुख पहलू था।

1- संसाधन निष्कर्षण

ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने अपनी औद्योगिक क्रांति को बढ़ावा देने और अपने विस्तारित साम्राज्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए व्यवस्थित रूप से भारत के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया। भारत अपने समृद्ध कृषि उत्पादन, कपड़ा और खनिज संसाधनों के लिए जाना जाता था। हालाँकि, ब्रिटिश नीतियों ने अक्सर इन क्षेत्रों को कमजोर कर दिया। कपास, जूट और खनिज जैसे कच्चे माल को बड़ी मात्रा में निकाला गया, जिससे भारत का गैर-औद्योगिकीकरण हुआ क्योंकि तैयार माल ब्रिटेन में उत्पादित किया जाता था और भारत को वापस बेचा जाता था, बढ़ी हुई कीमतों पर।

2- भू-राजस्व नीतियाँ

अंग्रेजों ने बंगाल में स्थायी बंदोबस्त जैसी राजस्व नीतियां लागू कीं, जिसके कारण भारतीय किसानों को बेदखल कर दिया गया और भूमि स्वामित्व अनुपस्थित जमींदारों के हाथों में केंद्रित हो गया। उच्च भूमि करों से भारतीय किसानों पर बोझ पड़ता था, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर ऋण और दरिद्रता आती थी। राजस्व नीतियां स्थानीय आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के बजाय ब्रिटिश के लिए अधिकतम राजस्व निकालने पर केंद्रित थीं।

3- व्यापार एवं वाणिज्यिक नीतियाँ

ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने प्रतिबंधात्मक व्यापार नीतियां लागू कीं जो ब्रिटिश निर्माताओं और व्यापारियों के पक्ष में थीं। लगाने, एकाधिकार और भेदभावपूर्ण व्यापार प्रथाओं ने भारतीय उद्योगों और वाणिज्य के विकास में बाधा उत्पन्न की। भारतीय वस्तुओं को ब्रिटिश उत्पादों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा और भारतीय उद्योगों को वैश्विक बाजारों में प्रतिस्पर्धा करने के लिए संघर्ष करना पड़ा।

4- हस्तशिल्प उद्योगों का विनाश

ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने सक्रिय रूप से भारत के पारंपरिक हस्तशिल्प उद्योगों को दबा दिया, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ थे। भारतीय बाजार में ब्रिटिश आयात की बाढ़ आ गई, जिससे स्थानीय स्तर पर उत्पादित वस्तुओं की मांग में गिरावट आई। लाखों कुशल कारीगर विस्थापित हो गए और भारत की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था कमजोर हो गई।

5- रेलवे और बुनियादी ढांचा:

जबकि अंग्रेजों ने रेलवे जैसे कुछ बुनियादी ढांचे की शुरुआत की, इसका प्राथमिक उद्देश्य भारत से ब्रिटिश स्वामित्व वाले कारखानों और बंदरगाहों तक कच्चे माल की आवाजाही को सुविधाजनक बनाना था। रेलवे नेटवर्क को संसाधन संपन्न क्षेत्रों को ब्रिटिश बंदरगाहों से जोड़ने, कुशल संसाधन निष्कर्षण और निर्यात को सक्षम करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। इसने आर्थिक विकास को ब्रिटिश हितों के पक्ष में और झुका दिया।

6- वित्तीय निकास

ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने भारत से महत्वपूर्ण वित्तीय संसाधनों को ख़त्म कर दिया। श्रद्धांजलि भुगतान, भारी कराधान और ब्रिटिश कंपनियों द्वारा मुनाफे को वापस भेजने का मतलब था कि भारत की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा देश से बाहर चला गया, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था गरीब हो गई।

7-श्रम शोषण

अंग्रेजों ने विभिन्न परियोजनाओं और उद्योगों को समर्थन देने के लिए जबरन श्रम, गिरमिटिया श्रम और कम वेतन का उपयोग करके अपने आर्थिक हितों के लिए भारतीय श्रम का शोषण किया। इस शोषण ने भारतीय श्रमिकों की दरिद्रता और उनके जीवन स्तर में गिरावट में योगदान दिया।

8- कृषि पर प्रभाव

ब्रिटिश नीतियों के कारण अक्सर भारतीय कृषि की उपेक्षा हुई। खाद्य फसलों की कीमत पर नील, अफ़ीम और जूट जैसी नकदी फसलों को बढ़ावा दिया गया, जिससे अकाल और भोजन की कमी हो गई। अकाल के प्रति ब्रिटिश प्रशासन की अपर्याप्त प्रतिक्रिया ने भारतीय किसानों की पीड़ा को और बढ़ा दिया।


13- निम्नलिखित में से किन्ही दो पर लगभग 200 शब्दों में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

( क ) क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का उदय
( ख) हिंद स्वराज
( ग ) खिलाफत का मुद्दा
( घ ) कैबिनेट मिशन योजना

(A) क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का उदय:

भारत में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का उदय स्वतंत्रता के संघर्ष में एक महत्वपूर्ण चरण था, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ प्रतिरोध के उदारवादी दृष्टिकोण से अधिक कट्टरपंथी और उग्रवादी तरीकों में बदलाव की विशेषता थी। यह 20वीं सदी की शुरुआत में संवैधानिक तरीकों की सीमाओं और ब्रिटिश प्रशासन के दमनकारी उपायों की प्रतिक्रिया के रूप में उभरा।
क्रांतिकारी राष्ट्रवादी, जो अक्सर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) जैसे समूहों और भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस जैसे व्यक्तियों से जुड़े थे, ने स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए सीधी कार्रवाई, सशस्त्र संघर्ष और यहां तक कि हिंसा की वकालत की। उनकी विचारधारा समाजवादी और मार्क्सवादी विचारों के साथ-साथ साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं से भी प्रभावित थी।
इन क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन, हड़ताल और तोड़फोड़ जैसे विभिन्न कार्यों का आयोजन किया। उनकी गतिविधियों का उद्देश्य ब्रिटिश नियंत्रण को कमजोर करना, जनता को प्रेरित करना और औपनिवेशिक शासन के अंत में तेजी लाना था। हालाँकि उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन को प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन उनके तरीकों से ब्रिटिश अधिकारियों के साथ तनाव भी बढ़ गया।

(B) हिंद स्वराज:

1909 में महात्मा गांधी द्वारा लिखित "हिंद स्वराज", एक मौलिक कार्य है जो राजनीतिक स्वतंत्रता की नींव के रूप में नैतिक, आध्यात्मिक और नैतिक सिद्धांतों पर जोर देते हुए, स्व-शासन के गांधी के दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। यह पुस्तक पश्चिम से आयातित आधुनिक सभ्यता और मूल्यों की आलोचना करती है, पारंपरिक भारतीय मूल्यों और आत्मनिर्भरता की वापसी की वकालत करती है।
गांधी की "स्वराज" (स्व-शासन) की अवधारणा राजनीतिक स्वायत्तता से परे है, जिसमें व्यक्तिगत आत्म-अनुशासन, सामुदायिक सहयोग और अहिंसक प्रतिरोध शामिल है। उनका तर्क है कि हिंसक तरीकों से राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना केवल आक्रामकता और वर्चस्व के चक्र को कायम रखेगा।
"हिंद स्वराज" ने भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन को प्रभावित किया, विशेष रूप से अहिंसक प्रतिरोध, आत्मनिर्भरता और न्याय की खोज पर इसका ध्यान केंद्रित किया। गांधी के विचारों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति और दर्शन को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और सतत विकास, अहिंसक प्रतिरोध और नैतिक शासन पर चर्चा के साथ गूंजते रहे।

(C) खिलाफत का मुद्दा:

खिलाफत आंदोलन 20वीं सदी की शुरुआत में भारत में एक अखिल-इस्लामिक आंदोलन था, जो प्रथम विश्व युद्ध के बाद ओटोमन खलीफा की रक्षा के आसपास केंद्रित था। मुस्लिम ओटोमन साम्राज्य के संभावित विघटन और खलीफा के अधिकार के कमजोर होने के बारे में गहराई से चिंतित थे। यूरोपीय शक्तियाँ, विशेषकर ब्रिटेन।
महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष में हिंदुओं और मुसलमानों को एकजुट करने के साधन के रूप में खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया। गांधीजी ने इसे सांप्रदायिक विभाजन को पाटने और भारत की स्वतंत्रता के बड़े उद्देश्य के लिए सामूहिक ऊर्जा का उपयोग करने के अवसर के रूप में देखा।
खिलाफत आंदोलन को तुर्की के स्वतंत्रता संग्राम के सामने आने पर चुनौतियों का सामना करना पड़ा। आंदोलन के लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय विकास के साथ जुड़ गए और इसके नेतृत्व में विभाजन उभर आए। विभिन्न धार्मिक समुदायों को एकजुट करने के प्रयासों के बावजूद, खिलाफत आंदोलन अंततः अपने इच्छित उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सका।

(D) कैबिनेट मिशन योजना

कैबिनेट मिशन योजना 1946 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत के संवैधानिक ढांचे और स्वशासन की दिशा में इसके मार्ग को संबोधित करने के लिए रखा गया एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव था। 
इस योजना का उद्देश्य एक संघीय ढांचे के साथ एकजुट भारत का निर्माण करना था जो विभिन्न समुदायों के हितों को समायोजित करता हो।
योजना ने तीन-स्तरीय संरचना का प्रस्ताव रखा: सीमित शक्तियों वाला एक संघ केंद्र, प्रांतों के तीन समूह, और प्रांत जो भौगोलिक निकटता के आधार पर समूहों में शामिल हो सकते हैं। रक्षा, विदेशी मामलों और संचार को संभालने के लिए एक मजबूत केंद्र सरकार बनाए रखते हुए प्रांतों को स्वायत्तता प्रदान करने का विचार था।
कैबिनेट मिशन योजना को मुस्लिम लीग सहित विभिन्न हलकों से विरोध का सामना करना पड़ा, जिसने मुसलमानों के लिए एक अलग राज्य (पाकिस्तान) की मांग की थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भी आपत्ति थी। योजना अंततः आम सहमति हासिल करने में विफल रही, जिससे सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी और अंततः भारत का विभाजन हुआ।
कैबिनेट मिशन योजना ने बाद के राजनीतिक प्रवचन और वार्ता को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसके कारण भारत की स्वतंत्रता हुई और भारत और पाकिस्तान को अलग राष्ट्र के रूप में बनाया गया।


14- निम्नलिखित में से किन्हीं दो पर लगभग 200 शब्दों ( प्रत्येक )  में संक्षिप्त टिप्पणियां लिखिए

( क )  विलियम जॉन्स
( ख)  मीर जाफर और ब्रिटिश
( ग )  सिख राज्य व्यवस्था की प्रकृति
( घ ) रैयतवाड़ी व्यवस्था


(A) विलियम जोन्स

सर विलियम जोन्स (1746-1794) एक ब्रिटिश भाषाशास्त्री थे जिन्होंने भारतीय भाषाओं, संस्कृति और कानून के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 
उन्हें 1784 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना के लिए जाना जाता है, जिसने भारत के इतिहास और विरासत की विद्वतापूर्ण खोज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जोन्स की भारतीय भाषाओं में रुचि के कारण उन्होंने संस्कृत को समझने और उसका अध्ययन करने में अग्रणी काम किया। उन्होंने संस्कृत, ग्रीक और लैटिन के बीच भाषाई और सांस्कृतिक संबंधों को पहचाना और उनके प्रयासों ने तुलनात्मक भाषाविज्ञान की नींव रखी। उनके काम ने भारत की समृद्ध साहित्यिक और बौद्धिक विरासत और वैश्विक विचार पर इसके प्रभाव पर प्रकाश डाला।
जोन्स का योगदान भारतीय कानून में भी बढ़ा। उन्होंने मनुस्मृति जैसे प्राचीन कानूनी ग्रंथों का अनुवाद किया और हिंदू कानूनी परंपराओं की जटिलताओं को समझने की कोशिश की। 
उनके अनुवादों और विश्लेषणों ने भारतीय न्यायशास्त्र के अध्ययन पर गहरा प्रभाव डाला और भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक कानूनी प्रणालियों के विकास की जानकारी दी।

(B) मीर जाफ़र और अंग्रेज़

मीर जाफ़र (1691-1765) भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक भागीदारी के इतिहास में एक प्रभावशाली व्यक्ति थे। 1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद उन्हें अंग्रेजों द्वारा बंगाल का नवाब नियुक्त किया गया था, जिसके दौरान उन्होंने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेना को धोखा दिया था। इस घटना से भारत में ब्रिटिश राजनीतिक प्रभाव की शुरुआत हुई।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ मीर जाफ़र के गठबंधन ने सत्ता में उसकी बढ़त सुनिश्चित की, लेकिन वह जल्द ही उनके नियंत्रण में एक कठपुतली शासक बन गया। 
इसने अंग्रेजों के लिए भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अपने हितों की पूर्ति के लिए स्थानीय नेताओं को बरगलाने की एक मिसाल कायम की। इस प्रकरण ने प्रारंभिक ब्रिटिश औपनिवेशिक संबंधों की अवसरवादी और शोषणकारी प्रकृति पर भी प्रकाश डाला।

(C) सिख राजव्यवस्था की प्रकृति

18वीं और 19वीं शताब्दी के अंत में भारत के पंजाब क्षेत्र में सिख राज्य व्यवस्था एक विशिष्ट राजनीतिक इकाई के रूप में उभरी। इसकी विशेषता सिख गुरुओं और बाद में महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तत्वों का एक अनूठा मिश्रण था।
महाराजा रणजीत सिंह के अधीन सिख राज्य अपनी धार्मिक सहिष्णुता, प्रशासनिक दक्षता और सैन्य कौशल के लिए जाना जाता था। इसने अपने प्रशासन में विविध समुदायों और संस्कृतियों को एकीकृत करते हुए एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण बनाए रखा। खालसा जैसी सिख संस्थाओं ने सिखों के बीच एकता और पहचान की भावना को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सिख राजनीति को आंतरिक सत्ता संघर्षों, बाहरी आक्रमणों से चुनौतियों का सामना करना पड़ा और अंततः ब्रिटिश औपनिवेशिक विस्तार के आगे झुकना पड़ा। 19वीं शताब्दी के मध्य में एंग्लो-सिख युद्धों के कारण ब्रिटिशों द्वारा सिख साम्राज्य पर कब्ज़ा कर लिया गया।

(D) रैयतवाड़ी व्यवस्था

रैयतवाड़ी व्यवस्था 19वीं शताब्दी के दौरान भारत के कुछ हिस्सों में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा शुरू की गई एक भू-राजस्व प्रणाली थी। इसे उन क्षेत्रों में लागू किया गया जहां अंग्रेजों का उद्देश्य भूमि और राजस्व संग्रह पर सीधा नियंत्रण स्थापित करना था।
रैयतवारी प्रणाली के तहत, व्यक्तिगत किसानों या "रैयतों" को प्रत्यक्ष कृषक और राजस्व भुगतानकर्ता के रूप में मान्यता दी गई थी। इस प्रणाली का उद्देश्य बिचौलियों को खत्म करना और सरकार और कृषकों के बीच सीधा संबंध स्थापित करना था। प्रत्येक रैयत का मूल्यांकन एक निश्चित राजस्व मांग के साथ किया जाता था, जो अक्सर भूमि की उत्पादकता पर आधारित होता था।
जबकि रैयतवारी प्रणाली का उद्देश्य राजस्व संग्रह को सरल बनाना और बिचौलियों द्वारा शोषण को कम करना था, इसकी सीमाएँ थीं। फसल की विफलता की अवधि के दौरान निश्चित राजस्व की मांग बोझिल हो सकती है

 

15- उपयोगितावादियों में मुख्य विचार क्या थे चर्चा कीजिए?

उत्तर:- उपयोगितावादी विचार प्रसिद्ध दार्शनिक जेर्मी बेंथम के थे इनके विचारों के आधार पर वैज्ञानिक और तर्कसंगत दृष्टिकोण को भारत में विकसित किया गया। ब्रिटिश भारत में कोई मूलभूत परिवर्तन नही लाना चाहते थे उनका मुख्य उद्देश्य कानून और भूमि संबंधी नियमों को बदल कर पूंजीवादी बाजारमूलक अर्थव्यवस्था का निर्माण करना था। जिसका मुख्य उद्देश्य लोगो का अधिक से अधिक विकाश करना था।

उपयोगितावादी विचारों पर कानून व्यवस्था :-

  • उपयोगितावादी विचार भारतीयों के लिए बनाये जाने वाले कानूनों में दिखाई देते है बेटिक का मानना था की सती और बालिका हत्या जैसे कुप्रथाओ को कानून बना कर ही रोका जा सकता है।
  • ऐसी व्यवस्था बनाई गयी जो बेंथम के सिद्धांतों पर आधारित कानून और दंड संहिताएँ थी, उन्हें लागु कर समाज के निचले स्तर तक के लोगो को प्रभावित किया गया।

उपयोगितावादी विचारों पर भू-राजस्व व्यवस्था :-

जेम्स मिल भू-राजस्व व्यवस्था में परिवर्तन लाये जो उपयोगितावादी अर्थशास्त्र का आधार बना जिसके दो प्रकार थे।

  1. मुनरो द्वारा लागु रैयतवाड़ी बंदोबस्त की तरह सीधे किसानों से कर वसूली।
  2. यह कर व्यवस्था रिकार्डों के सिद्धांत के आधार पर था जिसमे भूमिपतियों पर कर लगाया गया और यह कर इस तरह लगाया गया जिससे भूमिपतियों को उत्पाद का तिरिक्त लाभ न पहुँचे जो उत्पादन होता था उसमे उत्पादन लागत निकल कर बाकि सारा पैसा राज्य को देना पड़ता था।
  • इस राजस्व के लिए प्रिंगल अधिकारी न्युक्त किये गए थे बंबई में।
  • भूमि का व्यापक सर्वेक्षण किया गया ताकि "शुद्ध उत्पाद" तय किया जा सके जिसकी दर कभी कभी 50 से 60 प्रतिशत तक होती थी।
  • उपयोगितावादी दृष्टिकोण के आधार पर राजस्व निर्धारण होता रहा साथ ही इसमें आकलन का महत्त्व भी रहा।

उपयोगितावादी विचारों पर साम्राज्य व्यवस्था :-

  • अंग्रेजी उपयोगितावादी विचार एक निरंकुश साम्राज्य व्यवस्था की थी जो दुसरे देशो में तानाशाही पर आधारित थी।
  • उपयोगितावादी के विचार हमेशा उदारवादी रहे लेकिन भारत में प्रजातांत्रिक सरकार का विरोध किया जेम्स मिल ने भी भारत में प्रतिनिधि सरकार का हमेशा विरोध किया।
  • डलहौजी ने ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत किया जिसमे प्रशासन को मजबूत करने के लिए एक उच्चाधिकारी और उसके नेतृत्व में अखिल भारतीय विभाग, डाक, तार और जन कार्य विभाग शामिल थे जिसका मुख्य उद्देश्य कुशल प्रशासन था।
  • डलहौजी ने उदारवादी दृष्टिकोण को भी अपनाया जेसे भारतीय सदस्यों को विधान परिषदों में जगह देना , मैकाले की अंग्रेजी भाषा में शिक्षा देने की निति और देशी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने का भी समर्थन किया।
  • ब्रिटिश द्वारा भारत में अब सुधार की जगह प्रशासन की कुशलता पर अधिक जोर दिया जाने लगा जो व्यावहारिकता तर्कसंगतता और कार्यकुशलता पर आधारित थी।
  • ब्रिटिश प्रशासन ने इस बात पर जोर दिया हमेशा कानून का सहारा लेने चहिये क्योंकि कुशल प्रशासन के लिए बल प्रयोग जरुरी है और राजनीतिक बदलाव या सुधार से बदलाव का कोई महत्त्व नहीं है।

 

16- ब्रिटिश प्रशासन में भारतीय आर्थिक प्रभावों का टिप्पणी कीजिए?

उत्तर:- ब्रिटिश प्रशासन में भारतीय अर्थव्यवस्था अत्यधिक प्रभावित हुई औपनिवेशिक नीतियों ने शिल्प वर्ग, कृषक समाज, कामगार और  व्यापारीक समूह के साथ हर तबके के लोगो को प्रभावित किया।

ब्रिटिश निति द्वारा भारतीय उद्योगों का अनौद्योगिकरण :-

  • भारतीय पारंपरिक उद्योग जिसमे भारतीय हस्तशिल्प उद्योग महत्वपूर्ण थे उन्हें चरणबध तरीके से समाप्त किया गया और इसकी शुरुआत इंग्लैंड में आधुनिक कारखानों के विकाश के साथ शुरू हुई।
  • अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी, फ्रांसीसी कंपनी, डच ईस्ट इंडिया कंपनियों और एशियाई मूल के व्यापारियों के साथ प्रतिस्पर्धा में भारतीय हस्तशिल्प उद्योग खासकर सूती और सिल्क वस्त्र काफी मजबूत था।
  • लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे धीरे इस प्रतिस्पर्धा ख़त्म कर सभी विदेशी कंपनी को सेनिक विजय से बाहर कर दिया और राजनैतिक तथा प्रशासनिक नियंत्रण के साथ भारतीय बाजारों पर कब्ज़ा कर लिया।
  • इजारेदार बनकर बंगाल में अपने लाभ के लिए बाजार को प्रभावित किया।
  • भारतीय शिल्पकारों का बाजार मूल्य लाभ कम हुआ और शोषण के कारण भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों धीरे धीरे अंग्रेजी कारखानों में बड़े पैमाने पर उत्पादन के चलते यूरोप के बाजारों से ख़त्म हुआ और हासिये पर आ गया।
  • इससे न केवल भारतीय घरेलू बाजार आयातित उत्पादों से भर गए साथ ही निर्यात बाजार भी समाप्त हो गया और यही अनौद्योगिकरण कहलाया।

ब्रिटिश निति के चलते औपनिवेशिक भारत में अकाल :-

  • देखा जाये तो अकाल प्राकृत घटना है जो मुख्यता सूखा पड़ने का मुख्य कारण था जिससे किसान अपने उत्पादन की "सामान्य दर" भी हाशिल नहीं केर पते थे।
  • राजनैतिक तथा प्रशासनिक नियंत्रण के बाद ब्रिटिश नीतियों ने भी इसे प्रभावित किया क्यूंकि पुनसे किसानो को कोई मदद नहीं मिली जेसे
  1. उत्पादन बढ़ाने में निवेश की कमी
  2. सिंचाई की व्यवस्था में सुधर न होना
  3. राजस्व वसूली में कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण
  4. जनसँख्या का तेजी से बढ़ना
  5. हेस्टन के अनुसार प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन 0.17 टन (1901) से 0.16 टन (1946) तक गिर गया।

ब्रिटिश निति द्वारा कृषि का वाणिज्यीकरण :-

  • ब्रिटिश निति कृषि के वाणिज्यीकरण प्रति के प्रति बड़ी उद्दार दिखी जहा खाद्यान्न उत्पादन कोई सुधर नहीं हुआ वाही नगदी फसलो की मांग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ी।
  • कुल और प्रति व्यक्ति उत्पादन बढ़ा साथ ही बाहरी एवं घरेलू बाजारों में कीमते भी ऊँची मिली जिसमे कपास मुख्य फसल थी।
  • इसका मुख्य कारण अमेरिका में लगातार हो रहे गृह-युद्ध था, क्योंकि ब्रिटिश कंपनी यहाँ से कपास लेती थी, परन्तु गृह-युद्ध के चलते इनकी निर्भरता भारतीय कपास पर बढ़ी और उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया गया।
  • साथ ही जूट, नील तम्बाकू, गन्ना, तिलहन जेसी नगदी फसलो के उत्पादन भी अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए किया गया बेसक उससे किसानो की जमीनों का नुकसान हो या किसान के उपर कर्ज बढे।

वाणिज्यीकरण के कारण ग्रामीण समाज पर आर्थिक प्रभाव :-

  • कृषि के वाणिज्यीकरण से ग्रामीण समाज में व्यापारिक पूँजी और ब्याज पर पेसे लेकर कृषि का चलन शुरू हुआ।
  • इस पूँजी का प्रयोग किसान खेती के लिए या मंदी में अपने जीवन यापन के लिए करता था।
  • फसल बेकार होने पर भू-राजस्व के भुगतान के लिए करता था।
  • समय पर पैसों को न चुकाने पर खेतीहरों की जमीन छिन ली जाती थी जिससे वे भूमिहीन श्रमिक बन जाते थे ।
  • ग्रामीणों की सामाजिक दशा इस प्रकार थी ।
  1. सबसे नीचे भूमिहीन कृषि श्रमिक ( जिनके पास जमीं नहीं थी )
  2. छोटे किसान ( 5 एकड़ से भी कम जमीन )
  3. बेहतर स्थिति वाले किसान ( 5 एकड़ से भी अधिक जमीन )
  4. सबसे ऊपर वे लोग थे जो खुद खेती नहीं करते थे बस लगान वसूलते थे।

औपनिवेशिक शासन और आर्थिक प्रभाव की व्याख्य :- औपनिवेशिक शासन और उसके प्रभाव की विद्वानों द्वारा मत

  • भारतीय राष्ट्रवादी विद्वान दादाभाई नरोजी, महादेव गोविंद रानाडे और आरसी दत्त ने औपनिवेशिक शासन के आर्थिक प्रभाव का विश्लेषण करते हुए बताया ब्रिटिश नीतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्ता का दोहन किया तथा सम्पति और उद्योगों का विनाश किया।

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